Add To collaction

लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 35 


चंद्रमा की शीतल किरणें गवाक्ष से होकर शर्मिष्ठा के मुख को स्पर्श कर रही थीं । संभवत: चंद्र किरणें शर्मिष्ठा के सौन्दर्य का स्पर्श करने के लिए ही मचल रही थीं । शर्मिष्ठा के मुख का सानिध्य पाकर वे वहां पर आनंद से खेलने लगीं । चंद्र किरणों का सानिध्य पाकर शर्मिष्ठा का सौन्दर्य और निखर आया था ।"सोने पे सुहागा" वाली कहावत लागू हो रही थी । चंद्रमा भी उसके कपोलों का चुंबन करने के लिए संभवत: बहुत अधीर हो रहा था इसीलिये तो उसने अपनी चंद्र किरणों को शर्मिष्ठा के पास भेजकर अपना उद्देश्य प्राप्त कर लिया था । 

शर्मिष्ठा के गवाक्ष से गगन में तैरता हुआ चंद्रमा स्पष्ट दिखाई दे रहा था । पूर्ण चंद्र था । पूर्ण चंद्र कितना सुंदर लगता है । कितना उज्जवल, कितना धवल , कितना नवल, कितना सजल ? शीतल चांदनी बिखेरता हुआ कितना प्रसन्न लग रहा था चंद्रमा । संभवत: वह कह रह था कि जो आनंद "देने" में है वह आनंद "लेने" में नहीं है क्योंकि लेने में "भोगबुद्धि" लगी होती  है और देने में "परमार्थ बुद्धि" काम करती है । स्वार्थ के बजाय परमार्थ के लिए किये गये कार्य का आनंद अमूल्य होता है । शास्त्रों में इसे ही तो "आत्यंतिक सुख" कहा गया है । चंद्रमा इसी आत्यंतिक सुख में मगन होकर निर्लिप्त भाव से अपनी मधुर शीतल चांदनी एकरूपता से सजीव, निर्जीव सब पर लुटा रहा था । 

शर्मिष्ठा चंद्रमा को एकटक देखने लगी । देखते देखते उसे अहसास हुआ कि चंद्रमा में उसी की आकृति दिखाई दे रही है । उसे आज अनुभूत हुआ कि वह कितनी सुन्दर है । बिल्कुल चंद्रमा की तरह कांतिवान, प्रकाशवान, शीतल, परमार्थी , गतिमान । चंद्रमा में अपनी छवि निहारकर शर्मिष्ठा को असीम आनंद की अनुभूति हुई । धीरे धीरे वह चंद्रमा से एकाकार हो गई । उसे लगने लगा कि वह स्वयं चंद्रमा बनकर सकल जगत को आलोकित कर रही है । अपने कर्म रूपी चांदनी से सबको पोषित कर रही है और सरस बना रही है । वह एकटक चंद्रमा को निहारती रही । अचानक उसे ऐसा लगने लगा कि चंद्रमा की आकृति में परिवर्तन हो रहा है । वह आकृति जो अभी तक उसकी लग रही थी , वह अब एक पुरुष आकृति में परिवर्तित होती जा रही है । तो क्या यह आकृति स्वयं चंद्र देव की है ? उसके मस्तिष्क में तुरंत यह विचार आया । "हो सकता है कि यह आकृति स्वयं चंद्र देव की ही हो ? उसने कोई चंद्र देव को देखा है क्या अभी तक ? नहीं ना ? तो फिर उसे कैसे पता होगा कि चंद्र देव की आकृति कैसी है" ? अपनी ही कल्पनाओं पर शर्मिष्ठा को हलकी हलकी हंसी आने लगी । "मन भी न जाने कहां कहां भटकता है और जाने क्या क्या कल्पना करता है" ? वह सोचने लगी । 

उसका ध्यान फिर से चंद्रमा की ओर गया । "अरे , यह तो कोई युवक लगता है । कितना तेज है इसके मुख पर ? बिल्कुल किसी चक्रवर्ती सम्राट की तरह । कितना शांत , कितना निर्मल , कितना ज्ञानी , कितना वीर ? दृढ़संकल्प और साहस ने उसका आभामंडल और बढ़ा दिया था । अचानक शर्मिष्ठा को महसूस हुआ कि वह चेहरा मुस्कुरा रहा है । शर्मिष्ठा उसे गौर से देखने लगी । शर्मिष्ठा को ऐसा लगा कि वह चेहरा भी उसी को ही देख रहा है और संभवत: कह रहा है "पहचाना मुझे" ? 

शर्मिष्ठा ने उसे पहचानने का बहुत प्रयास किया किन्तु उसे पहचान नहीं पाई । हारकर उसने इंकार में सिर हिला दिया । शर्मिष्ठा की इस प्रतिक्रिया पर चंद्रमा खूब ठठाकर हंसा और कहने लगा "आज ही तो हमारे राजकवि ने मेरे बारे में एक रचना सुनाकर प्रथम पुरुस्कार भी प्राप्त कर लिया है तुम्हारे पिता श्री से और तुम कहती हो कि तुम मुझे नहीं पहचानती हो । जरा अपने हृदय से पूछकर देखो जो तब से ही 'ययाति' की रट लगा रहा है" । चंद्रमा ने हंसते हुए कहा । 

चंद्रमा की बातों पर शर्मिष्ठा को विश्वास नहीं हुआ । "तो क्या वह आकृति सम्राट ययाति की है" ? शर्मिष्ठा सोचने लगी । 
,
"सोच क्या रही हो शर्मि ? मैं तो तुम्हारे हृदय में बसा हुआ हूं । तुम्हारे स्वप्न में भी तो मैं ही मैं हूं । तुम्हारी धड़कनों में रक्त बनकर मैं ही तो धड़क रहा हूं । क्या अभी भी मुझे नहीं पहचान पा रही हो, शर्मि" ? 

कितना मधुर स्वर था वह ? कानों से सीधा हृदय में उतर गया था । कितना धीर , गंभीर और कितना अपना सा । '"शर्मि' तो केवल मां ही कहती है । ये कौन है जो मुझे 'शर्मि' कहकर अपनी ओर खींच रहा है" ? वह कुछ समझ नहीं रही थी । इतने में चंद्रमा से आवाज आई 
"इतनी उलझन किसलिए शर्मि ? मैं उलझाना नहीं सुलझाना जानता हूं । जरा देखो तो मेरी ओर । मेरे नयनों में झांककर देखो , वहां पर तुम्हारी ही तस्वीर होगी" । वह आकृति कहने लगी 

शर्मिष्ठा ने चंद्रमा में बनी उस आकृति को गौर से देखा । वह आकृति एक राजकुमार की सी प्रतीत हो रही थी । शर्मिष्ठा ने उस आकृति की आंखों में देखा । वास्तव में उन आंखों में उसी की आकृति दिखाई दे रही थी । यह देखकर उसे बहुत आश्चर्य हुआ ।  
"इसमें इतना आश्चर्य किस बात का है शर्मि ? हम और तुम एक दूसरे के लिए ही तो बने हैं । मेरी बातों पर विश्वास नहीं है ना ? तो फिर मुझे छूकर देख लो । मैं अपने हाथ बढ़ा रहा हूं , तुम भी अपने हाथ आगे बढ़ाओ" । चंद्रमा मुस्करा
 कर कह रहा था । 

शर्मिष्ठा ने देखा कि चंद्रमा से दो हाथ निकल कर उसकी ओर आ रहे हैं । वह हतप्रभ रह गई । सम्मोहित अवस्था में ही कब उसके हाथ ऊपर उठ गये, उसे पता ही नहीं चला । उसके हाथों का स्पर्श ययाति के हाथों से होते ही उसके पूरे बदन में विद्युत का सा झटका लगा । पूरे बदन में सिहरन होने लगी । उसका शरीर सूखे पत्ते की तरह कंपायमान हो रहा था । स्वेद बिंदुओं से वह नहा गई थी । ऐसा रोमाञ्च उसे पहले कभी महसूस नहीं हुआ था । प्रथम प्रेम का प्रथम स्पर्श ऐसा ही होता है क्या ? यह आनंद अवर्णनीय था । वह आंखें बंद किये हुए इस आनंद में जीने लगी । 

"वह किस लोक में आ गई है ? यहां तो प्रत्येक जगह बहार ही बहार है । सुख , आनंद , हर्ष के अतिरिक्त कुछ अन्य है ही नहीं यहां पर । वह इसी आनंद में ही डूबी रहना चाहती थी सदैव । उसे लगता था कि यदि उसने अपनी आंखें खोल दीं तो यह सुन्दर लोक अभी नष्ट हो जाएगा । इसीलिए वह दृढता से आंखें बंद किये रही । 
"आंखें खोलो शर्मि । मेरी आंखों में अपनी तस्वीर देखो । आओ, मेरी बाहों में समा जाओ" । ययाति उसे धीरे धीरे अपने नजदीक लाते हुए बोला । 
"नहीं मैं आंखें नहीं खोलूंगी । आंखें खुलते ही यह सुन्दर दृश्य विलुप्त हो जाएगा" । वह डरते हुए बोली । 

ययाति हंसकर बोला "ऐसा नहीं होगा प्रिये । मेरी बात पर विश्वास करो । डरो नहीं । तुम इस समय प्रेम लोक में हो । इस लोक में आनंद ही आनंद है । दुख तो यहां प्रवेश कर ही नहीं सकता है । प्रेम में बहुत शक्ति होती है प्रिये । यह प्रेम ही तो है जो देना सिखाता है । प्रेमी लोग सबसे पहले अपना दिल देते हैं । दिल देने के बाद उन्हें पता चलता है कि देने में क्या आनंद है ? फिर प्रेमी स्वयं के लिए नहीं अपने प्रेम के लिए जीवित रहते हैं । स्वयं की प्रसन्नता के लिए नहीं प्रेमिका अथवा प्रियतम की प्रसन्नता के लिए समस्त कार्य करते हैं । आओ, मेरे सीने से लगकर मेरे मन की प्यास बुझा दो शर्मि" । ययाति का स्वर प्रेम में भीगा हुआ था । 

ययाति ने शर्मिष्ठा की चिबुक उठाकर उसका मुंह अपने मुंह के सम्मुख कर लिया और धीरे धीरे उसके अधर शर्मिष्ठा के अधरों की ओर बढ़ने लगे । शर्मिष्ठा ने अपने चेहरे पर ययाति की सांसें महसूस की तो उसने अपनी आंखें खोल लीं । उसने ययाति की आंखों में देखा । वहां पर प्रेम का अथाह सागर लहलहा रहा था । शर्मिष्ठा उस सागर में आकण्ठ डूब जाना चाहती थी । उसने भी अपने अधर ययाति के अधरों की ओर बढ़ाये । दोनों के अधर एक दूसरे के अधरों से जुड़ गये । शर्मिष्ठा के पूरे बदन में झनझनाहट सी होने लगी थी । उसके मुंह में एक ऐसे रस का स्वाद आने लगा जो उसने पहले कभी चखा नहीं था । "कौन सा रस था यह" ? पर सोचने का समय किसके पास है ? इस रस का जितना पान किया जाये उतना कम है । वह सब कुछ विस्मृत कर "अधर रस" का पान करने लगी । 

अचानक कहीं से एक भयानक चील प्रकट हुई और वह जोर से अट्टहास करती हुई अपने विशाल पंख लहराती हुई आई और अपने पंजों में ययाति को दबोच कर ले गई । शर्मिष्ठा अतृप्त, असहाय सी उसे देखती रह गई । उस चील ने अपने विशाल पंखों से शर्मिष्ठा को घायल कर दिया था और उसकी समस्त कांति छीन ली थी । अपने विशाल पंजों से उसने इतनी जोर का धक्का मारा था कि वह प्रेम लोक से सीधा "मृत्यु लोक" में आकर गिरी । 

एक जोर की चीख के साथ शर्मिष्ठा की नींद खुल गई । पास के कक्ष में सोने वाली उसकी दासी राधा दौड़कर उसके पास आई और उसने शर्मिष्ठा के हाथ पकड़ते हुए कहा "कोई भयानक सपना देखा था क्या राजकुमारी जी" ? 

राधा को अपने सामने देखकर शर्मिष्ठा को थोड़ा चैन आया । उसे लगा कि उसने वास्तव में कोई स्वप्न ही देखा था । उस स्वप्न को याद करके शर्मिष्ठा के अधरों पर एक मुस्कान खेलने लगी । उसने अपनी एक उंगली अपने अधरों पर फिराई तो उसे वहां "अधर रस" की कुछ बूंदें महसूस हुई । "वो पल कितने अद्भुत थे ? काश ! वह सुख अनंत काल तक चलता ! दुष्ट चील न जाने कहां से आ मरी और उसका सब कुछ छीन ले गई । कौन थी वह चील ? चेहरा तो कुछ जाना पहचाना सा था उसका , पर वह पूरी तरह से पहचान नहीं पाई थी उसे । 

श्री हरि 
7.7.23 

   22
6 Comments

Gunjan Kamal

14-Jul-2023 12:26 AM

👏👌

Reply

Hari Shanker Goyal "Hari"

14-Jul-2023 10:38 AM

🙏🙏🙏

Reply

Varsha_Upadhyay

12-Jul-2023 08:53 PM

शानदार

Reply

Hari Shanker Goyal "Hari"

14-Jul-2023 10:37 AM

🙏🙏

Reply

Hari Shanker Goyal "Hari"

14-Jul-2023 10:37 AM

🙏🙏

Reply